नीरज पराशर
बिहार बोर्ड ने रिकॉर्ड बना दिया है | देश का पहला बोर्ड बन गया है जिसने लॉक डाउन के दौरान ही परीक्षा परिणाम दे दिया है | पिछले वर्ष 2019 में भी बिहार बोर्ड ने रिकॉर्ड बना दिया था | देश का पहला बोर्ड जिसने परीक्षा के एक महीने के अन्दर परिणाम घोषित कर दिया था |
ये लगातार दूसरा वर्ष है जब 80 प्रतिशत से अधिक विद्यार्थी दसवीं की बोर्ड परीक्षा में पास हुए हैं | मीडिया में नतीजे को सजाकर परोसा गया है | पास हुये बच्चे व उनके अभिभावक खुश हैं, होना भी चाहिये | शत-प्रतिशत बच्चे पास हो ये और अच्छी बात होगी | लेकिन जिस तरीके से जिस समय पर ये नतीजे आये हैं उनसे कई अनुत्तरित सवाल छोड़ जन्म लेता है जो निम्नलिखित है-
- परीक्षा पैटर्न को बदलने के बाबजूद 2020 में मात्र 37 % विद्यार्थी प्रथम श्रेणी से पास हुए हैं | ज्ञात हो कि बिहार बोर्ड में अब 50 % वस्तुनिष्ठ बहुविकल्पीय प्रश्न पूछे जाते हैं जो कि सी.बी.एस.ई के 25% वस्तुनिष्ठ बहुविकल्पीय प्रश्न दो गुना ज्यादा है | 50 % वस्तुनिष्ठ प्रश्न के बाबजूद कुल परीक्षार्थी के 50% परीक्षार्थी भी 60% अंक (प्रथम श्रेणी) हासिल नहीं कर रहे हैं क्यों ?
- NCERT द्वारा कराये गए नेशनल एचीवमेंट सर्वे 2017-18 में कक्षा 10 वीं में राज्य के छात्रों का परफॉरमेंस औसत देखे तो गणित में के 36 प्रतिशत, विज्ञान में 31 प्रतिशत अंग्रेजी में 29 प्रतिशत हैं ,लेकिन वही विद्यार्थी जब बोर्ड की परीक्षा देते हैं तो 80 प्रतिशत विद्यार्थी पास कर जाते हैं ?
- असर (ASER) रिपोर्ट के “स्टेट रिपोर्ट कार्ड” के अनुसार बिहार के 8 वीं कक्षा के 28.8 % विद्यार्थी कक्षा 2 की पाठ्यपुस्तक नहीं पढ़ पाते , 43.1 % गणित में गुणनखंड नहीं कर सकते | लेकिन उन्ही के दसवीं के नतीजे चौकाने लगे हैं |
- असर रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में 2016 से 2018 तक 8 वीं के विद्यार्थियों की लर्निंग आउटकम में कमी आई है, लेकिन उसी व्यवस्था में वही बच्चे जब 10 वीं में पहुचते हैं तो उनका पास होने का प्रतिशत 2017 में 50.12 % से बढ़कर 2019 में 80.83 % एवं 2020 में 80.59 % हो जाता है और फिर जब वो 12 वीं में पहुचाते हैं तो 2017 के 35 % के मुकाबले 2019 में पास होने का प्रतिशत 80 % हो जाता हैं ?
- 8 वीं तक मध्य विद्यालयों में शिक्षक कमोबेश उपलब्ध हैं इसके बाबजूद लर्निंग आउटकम (सीखने का प्रतिफल) नीचे जा रहा है, दूसरी तरफ 10+2 में शिक्षकों की भारी कमी होने के बाबजूद नतीजे 2017 के 35 % से बढ़कर 2018 में 52% और 2019 में 80 % पहुच रहे हैं कैसे ?
- जब से राज्य के उच्च विद्यालयों को अपग्रेड करके 10+2 बनाया गया है तबसे इन विद्यालयों में शिक्षकों की कमी हो गई है ,क्योंकि एकसाथ बड़े पैमाने पर गणित, भौतिकी, रसायन, जीवविज्ञान, वाणिज्य, कला (भूगोल, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, तर्कशास्त्र, भाषा-अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत, गृहविज्ञान, संगीत, उर्दू, फ़ारसी, अरबी, इत्यादि के सहायक प्रोफेसर की नियुक्ति नहीं हुई | जितनी रिक्तियां थी उससे कम STET/CTET पास अभ्यर्थी थे | बाद में सरकार ने अतिथि शिक्षक का प्रयोग किया है जो कि असफल दिख रहा है | कई अतिथि शिक्षक के त्यागपत्र की खबरे आये दिन आती रहती है | दरअसल जो युवा इंटर स्तर के विषयों को पढ़ाने का ज्ञान रखते हैं वो अतिथि शिक्षक के रूप में 12-15 हजार की नौकरी करने के बजाय कोचिंग खोलकर 50 हजार से 1 लाख तक कमाई की संभावना के रूप में देखते हैं |
- सरकार के लोग पास होने वाले विद्यार्थियों के प्रतिशत में वृद्धि का श्रेय प्रश्न पत्र के पैटर्न में बदलाव को दे रहे हैं | वो बोल रहे हैं कि पचास प्रतिशत बहुविकल्पीय वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछे जा रहे हैं इसीलिये बेहतर परिणाम आ रहे हैं | लेकिन बदलते पैटर्न ने भी कुछ सवाल पैदा किया है जैसे कि क्या इससे हम बच्चों के अन्दर रचनात्मक लेखन व प्रस्तुतीकरण व विश्लेष्णात्मक क्षमता को कम तो नहीं कर रहे हैं जोकि इक्कीसवीं सदी में सीखने का महत्वपूर्ण कौशल है |
- दूसरा सवाल ये है कि पिछले दो दशक में प्रश्न-पत्र के पैटर्न में बहुविकल्पीय प्रश्नों का प्रतिशत दस से बढ़कर पचास हो गया है जो कि वैसे राज्यों के लिए नुकसानदायक है जहाँ अंक आधारित नियुक्तियां होती है |इसे एक उदहारण से समझते हैं- कल्पना कीजिये कि 2022 में बिहार में किसी नौकरी की बहाली निकलती है जोकि अंक के आधार पर होनी है जैसा कि पिछले साल घोषणा भी हुई थी कि अभियंताओं की नियुक्ति अंक के आधार पर होगी और पूर्व में भी अमूमन पांच-सात सालों तक लाखों शिक्षकों की नियुक्ति अंक के आधार पर की गई | अब समस्या ये है कि 2022 वाले बहाली में वो विद्यार्थी भी आवेदन करेंगे जो सन 2000 में मैट्रिक पास हुये हैं जब सिर्फ 10 प्रतिशत बहुविकल्पीय वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछे जाते थे और 75 % पाने वाला टॉप करता था और 2019 वाले भी जिन्हें आज 95 % तक अंक प्राप्त हो रहे हैं |ज्ञात हो कि राज्य सरकार की नियुक्तियों में आरक्षण को जोड़कर उम्र की अधिकतम सीमा सीमा चालीस-बयालीस साल तक होती है |
क्या है शिक्षक विहीन विद्यालय का मामला:
पिछले साल हिंदुस्तान अखबार ने खबर प्रकाशित किया था कि बिहार के 5000 हाईस्कूल में पिछले 10 सालों से एक भी शिक्षक की नियुक्ति नहीं हुई है |8406 ग्राम पंचायत है बिहार में ।अमूमन एक पंचायत में 1 हाईस्कूल होता है । नगर निकायों की भी संख्या जोड़ दिया जाये तो भी ऐसा प्रतीत होता है कि 50% हाईस्कूल शिक्षक विहीन है । 5822 मिडिल स्कूल अपग्रेड हुआ लेकिन शिक्षक हैं उनमे मात्र 3372 अर्थात 0.57 प्रति स्कूल । शिक्षक विहीन स्कूल वो भी एक दो साल नहीं बल्कि दस साल । यहां तो ये भी बहाना नहीं कि झारखंड की तरह 20 साल में 10 बार मुख्यमंत्री पद में बदलाव हुआ जिससे काम प्रभावित हुआ हो , बल्कि यहां तो 14 साल से 1 ही व्यक्ति मुख्यमंत्री हैं और अगर वो जबावदेही नहीं लेंगे तो उनके नीचे काम करने वाले लोग जबावदेही लेने के लिए क्यों और कैसे प्रेरित होंगे ? आज सरकारी स्कूल में सामाजिक, आर्थिक रूप से कमजोर समाज ही पढने जाते हैं, तो सोचने वाली बात है कि गरीब गुरबों को क्या हासिल हुआ शिक्षक विहीन शिक्षा ?
पिछले साल के परीक्षा परिणाम को भी चुनाव से जोड़कर देखा गया था:
पिछले साल 30 लाख में लगभग 24 लाख बच्चों पास हुए थे | 12 वीं में 13,15,382 विद्यार्थिओं में 10,19,795 पास हुये जबकि 10 वीं में 17.70 लाख में 13,20036 विद्यार्थी पास हुए हैं | 12 वीं का सफलता प्रतिशत 79.76 जबकि 10 वीं का 80.73 % रहा था | इसपर गावं के चाय दुकानों पर खूब चर्चा हुई थी कि क्या 11 अप्रैल से लोकसभा चुनाव नहीं होता तब भी नतीजे 31 मार्च तक आ जाते ? ऐसा इसलिए कि जो बच्चे वोट नहीं देते हैं उनके लिए शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के कई सालों तक किताबें समय पर क्यों नहीं पहुंच पाती है ?
- क्या 12वीं के बच्चे 18 साल के नहीं होते और पहली वार वोट नहीं कर रहे होते तब भी परीक्षा परिणाम इतनी जल्दी और इतना बेहतर आते ? बिहार में 40 लोकसभा सीट है और मैट्रिक इंटर पास 18-20 लाख ऐसे विद्यार्थी हैं जो लोकसभा चुनाव 2019 में पहली बार वोट करने वाले थे | मैट्रिक भी इसलिए जोड़ा क्योंकि 2016-18 के बीच फेल होने वाले परीक्षार्थी भी 2019 में बार पास हुये थे और इन तीन सालों में वे भी 18 साल के हो गए थे ? औसत एक लोकसभा में 25-50 हजार नवयुवा वोटर नतीजे को तो प्रभावित कर ही सकते हैं |
आखिर क्या है ये नंबर के पीछे भागमभाग:
दरअसल सीखने की प्रक्रिया को केवल पास, फेल और अंकों के साथ जोड़कर देखने से इस तरह की समस्या का जन्म होता है | नीतीश सरकार में सबसे ख़राब दसवीं बोर्ड के नतीजे 2016, 17 में रहा जिसके कारण कुछ दिनों तक मीडिया बाजी हुई ऊपर से बहुप्रसिद्ध रूबी राय और गणेश के रूप में इंटर टॉपर घोटाला में भी काफी किरकिरी हुई | ऐसे में सरकार के पास सीधे-सीधे दो रास्ते दिखते हैं-(1.) बच्चों के सीखने के प्रतिफल को बढ़ाने के लिए शिक्षक, संसाधन, शोध, प्रशिक्षण इत्यादि पर जोड़ डालना | (2.) परीक्षा पैटर्न को ही आउटकम आधारित बना देना | पहला वाला रास्ता नतीजा तो बदल सकता है लेकिन थोड़ा समय ज्यादा लेता है जबकि दूसरा वाला तुरंत आउटकम देता है लेकिन शायद उसमें लर्निंग का तत्व कम होने लगता है |
इतने पर भी क्या है जो उत्साहित करता है:
हालाँकि बिहार के लिंगानुपात दर में लड़कियों की संख्यां चिंताजनक है लेकिन दसवीं बोर्ड की परीक्षा में लड़कियों का लड़कों से ज्यादा उपस्थित होना और ज्यादा संख्यां में पास होना महिला शिक्षा के क्षेत्र में अच्छी पहल है | इस साल 729215 लड़कों की तुलना में 746858 लड़कियां पास हुई हैं हालाँकि प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण करने तथा टॉपर की संख्या में लड़कों का संख्यां ज्यादा है |
आखिर क्या किये जाने की दरकार है:
रोज-रोज बदलते वैश्विक बाजार की प्रकृति में आत्मनिर्भर बनने और जीविकोपार्जन के लिए सिर्फ सर्टिफिकेट काफी नहीं होगा बल्कि कौशल का विकास करना होगा | दसवीं में बच्चे गर्मी की छुट्टी के बाद विद्यालय जाना बंद कर देते हैं और कोचिंग पर निर्भर हो जाते हैं | कोचिंग में प्रयोगशाला, पुस्तकालय का नितांत अभाव रहता है, हालांकि उच्च विद्यालयों के प्रयोगशालाओं और पुस्तकालयों की भी बड़ी दयनीय स्थिति है, कई छात्रों से बातचीत करने से पता चलता है कि उन्होंने पहली बार प्रयोगशाला में जाने का अवसर बोर्ड के प्रैक्टिकल परीक्षा के दिन प्राप्त हुआ|
मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती करनी ही पड़ेगी | जब हम विद्यालय की संकल्पना करते हैं तो जो-जो चीजें देखते हैं उसे सुनिश्चित करना ही पड़ेगा जैसे- शिक्षक, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शौचालय, पानी इत्यादि | बिहार के उच्च विद्यालय अभी इन्ही बुनियादी सुबिधाओं से जूझ रहे हैं | इसके बाद फिर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया की समीक्षा की जानी चाहिए जैसे शिक्षक प्रशिक्षण, प्रयोगशाला व पुस्तकालय को आधुनिक व अपडेटेड रखना, पाठ्यक्रम में युवा कार्यक्रम व जीवन कौशल का समावेश इत्यादि |
लेखक के बारे में: नीरज महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से समाज कार्य में स्नातकोत्तर हैं और एक दशक से ज्यादा समय से शिक्षा के क्षेत्र में गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से कार्यरत हैं |